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भारतीय दंड संहिता यानी आईपीसी की धारा 124-ए राजद्रोह को एक दंडनीय अपराध बनाती है। कमोबेश सभी देशों में राजद्रोह कानून है, हालांकि कुछ ने अपने यहां से इसे खत्म कर दिया है। भारत में भी इस कानून के…
Pankaj Tomarएस एन ढींगरा, पूर्व मुख्य न्यायाधीश, दिल्ली हाईकोर्टWed, 07 Jun 2023 10:08 PMऐप पर पढ़ें
भारतीय दंड संहिता यानी आईपीसी की धारा 124-ए राजद्रोह को एक दंडनीय अपराध बनाती है। कमोबेश सभी देशों में राजद्रोह कानून है, हालांकि कुछ ने अपने यहां से इसे खत्म कर दिया है। भारत में भी इस कानून के खिलाफ आवाजें मुखर रही हैं। इस कानून को असांविधानिक घोषित करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में याचिकाएं भी दायर की गई हैं कि यह अभिव्यक्ति की आजादी का उल्लंघन करता है और सरकार को मामूली आधार पर किसी को गिरफ्तार करने की ताकत देता है। विधि आयोग ने हाल ही में इसके तमाम पहलुओं की समीक्षा की है और इस कानून को समय की जरूरत बताया है। हालांकि, आयोग ने यह सिफारिश भी की है कि केदारनाथ मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने जिन सुरक्षा उपायों की अनुशंसा की थी, उन पर अमल होना चाहिए। इसके साथ ही उसने सजा में बढ़ोतरी का भी सुझाव दिया है।
यहां यह ध्यान रखना चाहिए कि आईपीसी में ऐसी कई धाराएं हैं, जो अभिव्यक्ति की आजादी को प्रतिबंधित करती हैं और ऐसे वक्तव्यों को अपराध बनाती हैं, जिनसे विभिन्न समुदायों, नस्लीय समूहों, क्षेत्रीय समूहों, भाषाओं आदि के प्रति घृणा या दुर्भावना का भाव झलकता हो और जो आपसी सद्भाव को बिगाड़े। खुद को अभिव्यक्त करने का अधिकार भी अनुच्छेद 19(2) के तहत शर्तों के अधीन किया गया है।
लोकतंत्र, अधिकार या आजादी समाज में हिंसा फैलाने, बदनाम करने या अराजकता पैदा करने और नफरत फैलाने या मानहानि करने का लाइसेंस नहीं है। धारा 124-ए ऐसे शरारती तत्वों के लिए अपराध है, जो भारत में सांविधानिक तौर पर निर्वाचित सरकार के खिलाफ शब्दों, संकेतों और दृश्यों द्वारा जान-बूझकर उकसाते हैं या उकसाने का प्रयास करते हैं, और नफरत फैलाने की कोशिश करते हैं। जिस देश में लोगों को जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्र के आधार पर बांटा गया हो, वहां सरकार को समाज के विभिन्न समुदायों-वर्गों के बीच संतुलन बनाए रखना होता है, ताकि शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व बना रहे।
जो लोग किसी भी कारण से सरकार के खिलाफ द्वेष रखते हैं और हमेशा उसे बदनाम करने की साजिश रचते हैं, वे परोक्ष रूप से आंतरिक व बाहरी दुश्मनों की मदद ही कर रहे होते हैं। हम इंटरनेट और संचार क्रांति के युग में जी रहे हैं। इसमें देश के भीतरी या बाहरी आकाओं के इशारों पर चंद पैसों के लिए लोगों की भावनाएं भड़काकर यह सब किया जा सकता है। हाल ही में ऐसे उदाहरण सामने आए हैं, जहां ‘चिकन नेक’, यानी सिलीगुड़ी गलियारे पर कब्जा करने और उसे समूचे देश से अलग-थलग करने के लिए यहां की आबादी के एक हिस्से को उकसाया जा रहा था। हाल-फिलहाल कुछ ऐसे मामले भी सामने आए हैं, जिनमें कुछ लोगों ने सांसदों और मंत्रियों को बंधक बनाने के इरादे से भारतीय संसद पर हमला करने वाले आतंकियों को नायक बना दिया। ऐसे विदेशी वित्त पोषित समूह और एनजीओ हैं, जो यह प्रचारित करते हुए आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई का विरोध करते हैं कि मानो देश के धार्मिक अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया जा रहा हो। इन सबसे न सिर्फ कानून लागू करने वाली एजेंसियों को बदनाम करने का प्रयास किया जाता है, बल्कि हिंसक माहौल का खाद-पानी भी मुहैया कराया जाता है। विधि आयोग ने इन तमाम पहलुओं पर गौर करने के बाद ही यह राय दी है कि इसमें सजा और ज्यादा सख्त होनी चाहिए।
किसी भी लोकतांत्रिक देश में कानून का पालन ही अनुशासन और शांति बनाए रखने का एकमात्र साधन है। कोई भी मुल्क बिना कानून के नहीं चल सकता। लोकतांत्रिक देशों में इस बाबत उपयुक्त कानूनों की कहीं अधिक दरकार होती है। हालांकि, महज कानून की किताबों का होना काफी नहीं है। कानून को सख्ती से, सावधानीपूर्वक और शीघ्र लागू किया जाना भी अनिवार्य है। हमने अपने देश में काफी अरसे से आपराधिक समूहों, माफिया व राजनेताओं-अपराधियों की परस्पर निर्भरता को बढ़ते हुए देखा है। यह सिर्फ इसलिए संभव हो पाया है, क्योंकि प्रशासन कानूनों को लागू करने में ईमानदार नहीं रहा। देश के उदय के समय से लोगों को अनुशासित करने का एकमात्र साधन कानून माना गया है। प्राचीन भारत में दंड-नीति के महत्व पर सभी ने बल दिया। यहां तक कि हमारे साहित्य में भी कहा गया है- भय बिनु होई न प्रीति, यानी कानून के भय के बिना अनुशासन नहीं आ पाता।
सबसे मुखर तर्क देशद्रोह मामलों में बरी होने वालों की संख्या को लेकर है। मगर ज्यादातर लोग संभवत: नहीं जानते कि भारत में तमाम गंभीर अपराधों में बरी होने की दर करीब 80 प्रतिशत है। क्या इसका मतलब यह है कि हमें आईपीसी और एनडीपीएस अधिनियम को खत्म कर देना चाहिए और बलात्कार, हत्या, डकैती जैसे अपराधों को कूड़े के ढेर में डाल देना चाहिए, क्योंकि इन अपराधों में भी बरी होने की दर अधिक है? अपनी न्यायिक प्रणाली में सुधार करने के बजाय हम कानूनों को खत्म करना चाहते हैं। अगर हमारी अदालतें, विधायिका और कार्यपालिका न्याय व्यवस्था में सुधार को लेकर गंभीर होतीं और आपराधिक मामलों का फैसला 20-30 साल बाद नहीं होता, तब तस्वीर कुछ अलग ही होती। हाल ही में मुख्तार अंसारी के खिलाफ हत्या का एक मामला 32 साल बाद तय हुआ। यासीन मलिक के खिलाफ मामला तो तीन दशकों से अधिक वक्त से लंबित है।
यदि अदालतें समाज के प्रति संवेदना रखतीं, मामूली आधार पर भी अपराधियों को नहीं बख्शतीं, और राष्ट्र को बदनाम करने की कोशिश करने वाले वक्तव्यों को गंभीरता से लेतीं, तो दृश्य कुछ और होता। अदालतों की अवमानना का एक कानून है, जो इस सिद्धांत पर आधारित है कि अभिव्यक्ति की आजादी अदालतों को बदनाम करने की अनुमति नहीं देती। अदालती फैसलों की सिर्फ स्वस्थ आलोचना की जा सकती है। राष्ट्र के मामले में भी ठीक यही सिद्धांत लागू किया जाना चाहिए। राष्ट्र द्वारा की जाने वाली कार्रवाइयों की स्वस्थ आलोचना की अनुमति जरूर होनी चाहिए, लेकिन अकारण जान-बूझकर देश को बदनाम करना दंडनीय बनाया जाना चाहिए, ताकि लोग बिना वजह आलोचना न करें। सीएए को लेकर राष्ट्र की आलोचना इसका एक बड़ा उदाहरण है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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