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हिंदी न्यूज़ ओपिनियन आजकलकिसी एक मुद्दे पर तो एका हो किसी एक मुद्दे पर तो एका हो
हमारे राजनेताओं ने पक्ष और विपक्ष के लिए अलग-अलग शब्दावलियां रख छोड़ी हैं। जब वे सत्ता में होते हैं, तो उनका तरीका अलग होता है और विपक्ष में आते ही उनके तेवर बदल जाते हैं। सवाल उठता है, क्या कभी…
Amitesh Pandeyशशि शेखरSat, 10 Jun 2023 09:03 PMऐप पर पढ़ें
हम एक ऐसे अंधे युग से गुजर रहे हैं, जहां हादसे, हत्या और हाहाकार विवाद जनते हैं, सरोकार नहीं। मणिपुर की हिंसा और बालासोर का ट्रेन हादसा इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। यह दुष्प्रवृत्ति स्वस्थ लोकतंत्र के लिए अच्छी नहीं है।
पहले ट्रेन दुर्घटना की बात करते हैं। यह दर्दनाक वाकया क्यों हुआ? कैसे हुआ? क्या इसके पीछे कोई बड़ी साजिश थी? सीबीआई ने इसकी जांच शुरू कर दी है, लेकिन हर जानलेवा दुर्घटना की जांच से पहले सहायता की दरकार होती है। जो सरकार में हैं, वे जो कर सकते थे, कर रहे हैं। जो विपक्ष में हैं, वे क्या कर रहे हैं? उन्होंने राजनीति की रीति को कायम रखा है। अपने सुरक्षित और आलीशान आवासों से उन्होंने आलोचनाओं के तीर चलाए और अगले मुद्दे के इंतजार में जुट गए। वे चाहते, तो अपने कार्यकर्ताओं के जत्थे वहां भेज सकते थे। जिन राज्यों में उनकी सरकारें हैं, वहां से इमदाद भेज सकते थे। पहले ऐसा होता था, लेकिन साल-दर-साल हमारी राजनीति और राजनीतिज्ञों ने गिरावट के नए कीर्तिमान दर्ज किए हैं।
हादसे कई तरह के होते हैं। बालासोर की ट्रेन दुर्घटना षड्यंत्र, लापरवाही या यांत्रिक गड़बड़ी की वजह से हो सकती है। इसके विपरीत कुछ आपदाएं प्रकृति के कोप से घटित होती हैं। सन् 2013 में केदारनाथ की आपदा इसकी मिसाल है। आज केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई वाली एनडीए की सरकार है, बालासोर रेल दुर्घटना के बाद उस पर हमले हो रहे हैं। केदारनाथ में प्रकृति का कोप जब फूटा, तब वहां कांग्रेस की हुकूमत थी। उसे भी तब आज के सत्तानायकों ने ऐसे ही घेरे में लिया था। हमारे राजनीतिज्ञों की सोच सिर्फ विरोध के लिए विरोध करने वाली हो गई है।
बिहार के भागलपुर में लगभग 1,700 करोड़ रुपये की लागत से बन रहे पुल का ढहना और उसके बाद पनपा हो-हल्ला इसका एक और नमूना है। पुल का एक हिस्सा पिछले अप्रैल में भी गिरा था। तब भारतीय जनता पार्टी सरकार में साझेदार थी। उस समय राष्ट्रीय जनता दल और अन्य विपक्षियों ने सरकार की जमकर लानत-मलामत की थी। पिछले हफ्ते जब यह पुल पुन: गिरा, तब तक राजनीति यू-टर्न ले चुकी थी। अब राष्ट्रीय जनता दल सरकार में है और भाजपा बाहर। आप भाजपा और राजद के नेताओं के नए-पुराने बयानों को मिला देखिए। आज भाजपा के लोग जो कुछ बोल रहे हैं, वो कल राजद के लोग बोल चुके हैं। आज राजद जो बोल रहा है, कल भाजपा के लोग वही बानी बोल रहे थे।
क्या आम आदमी पर इसका असर पड़ता है?
पिछले साल के अक्तूबर में लौट चलिए। गुजरात में विधानसभा चुनावों का माहौल चरम पर था। इसी दौरान मोरबी में मच्छू नदी पर बना केबल पुल टूट गया और लगभग 140 लोगों को जान गंवानी पड़ी। मृतकों में अधिकतर मोरबी और आसपास के लोग थे। कांग्रेस और आम आदमी पार्टी ने इसे चुनावी मुद्दा बनाने की कोशिश की। जमकर शब्दबाण चलाए गए, पर असर कितना हुआ? चुनाव परिणाम आने पर मालूम पड़ा कि मोरबी से भाजपा के कांतिलाल शिवलाल अमृतिया ने बाजी मार ली है। इसका मतलब यह नहीं है कि लोग भ्रष्टाचार से आजिज नहीं आ रहे। इसका तात्पर्य यह है कि वे वोट देते समय भ्रष्टाचार को दिमाग में इसलिए नहीं लाते, क्योंकि उन्हें सभी दलों में एक जैसे लोग नजर आते हैं। इस चलन का अगला इम्तिहान मध्य प्रदेश में होना है। उज्जैन में सप्तऋषियों की मूर्तियां जिस तरह आंधी-तूफान में ध्वस्त हुईं, कांग्रेस उसे मुद्दा बना रही है।
एक वक्त था, जब हमारे राजनेता ऐसी त्रासदियों में संवेदनशीलता दिखाते थे। 1982 या 83 की बात है। इलाहाबाद (अब प्रयागराज) के ग्रामीण इलाके में उत्तर प्रदेश राज्य सड़क परिवहन निगम की बस पर बिजली का उच्च शक्ति वाला तार गिर पड़ा था। नतीजतन, तीस से अधिक यात्री जिंदा जल गए थे। मैंने वह वीभत्स मंजर खुद देखा था। लौटकर मुलायम सिंह यादव और जनेश्वर मिश्र से प्रतिक्रिया जाननी चाही। दोनों का जवाब था- ‘अभी दुख का समय है, कुछ बोलना ठीक नहीं है।’ बाद के वर्षों में साधारण जन की त्रासदी सत्ता पाने का औजार बनती चली गई।
मणिपुर की घटनाएं इस सिलसिले की अगली कड़ी हैं। अदालती आदेश के बाद वहां की वादियों में हिंसा फूट पड़ी। बहुसंख्यक मैतेई और अल्पसंख्यक कुकी समुदायों में संघर्ष होने लगा। अब तक सौ के करीब लोग वहां मारे जा चुके हैं। 26,000 से अधिक लोगों को विस्थापित होना पड़ा है। नृशंसता की पराकाष्ठा तो तब हो गई, जब पिछले हफ्ते एक एंबुलेंस को आग के हवाले कर दिया गया और इसकी लपटों ने तीन लोगों को लील लिया। इस एंबुलेंस में एक मैतेई महिला अपनी रिश्तेदार के साथ बीमार बच्चे को अस्पताल ले जा रही थी। हमारे समाज में कभी जातिगत, धार्मिक और कबीलाई विग्रहों को तोड़ने की कसमें खाई जाती थीं। मौजूदा हिंसा ने उस अमन-चैन की प्रक्रिया को भी बाधा पहुंचाई है, जिसके लिए सरकार को कड़ी मशक्कत करनी पड़ी। 1990 के दशक में मैंने कई दिनों तक मणिपुर और नगालैंड के दूरस्थ इलाकों का बहैसियत पत्रकार दौरा किया था। वहां जाकर महसूस हुआ था कि अलगाववाद क्या होता है और किस तरह भारतीय व्यवस्था के संचालकों को देश की अखंडता कायम रखने के लिए खून-पसीना बहाना पड़ता है।
उत्तर-पूर्व का देश की मुख्यधारा में शामिल होना बेहद जरूरी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आते ही इस इलाके के लिए तमाम नई नीतियों की शुरुआत की थी। मणिपुर में हिंसा भड़कते ही खुद अमित शाह ने वहां जाकर हालात को सुधारने के लिए तमाम निर्देश दिए, पर पुरानी गांठें खुलने में वक्त लगता है। समय का यह सफर बहुतों को जान-माल का नुकसान पहुंचा जाता है। इस दौरान क्या आपने विपक्ष के किसी बडे़ नेता का ऐसा बयान देखा, जो लोगों के घाव सहलाता हो और शांति की अपील करता हो? मैं पहले भी अनुरोध कर चुका हूं कि हमारे राजनेताओं ने पक्ष और विपक्ष के लिए अलग-अलग शब्दावलियां रख छोड़ी हैं। जब वे सत्ता में होते हैं, तो उनका तरीका अलग होता है और विपक्ष में आते ही उनके तेवर बदल जाते हैं।
अब जब हम 2024 के आम चुनाव की ओर अग्रसर हैं, तो माहौल में कड़वाहट घुलने के आसार बढ़ते जा रहे हैं। सवाल उठता है,क्या कभी हम भारतीयों को अपने पसंदीदा सत्तानायकों से समदर्शी नीति और न्याय की सौगात मिल सकेगी?
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