ग्राउंड रिपोर्टतलवार उठाई…मेरे पति का गला काट दिया:पड़ोसी मुजफ्फरनगर की पंचायत में गए; लौटे तो 13 लोगों को मार दिया, 11 लाशें आज तक नहीं मिलींशामली24 मिनट पहलेलेखक: राजेश साहू
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सितंबर 2013. शामली का लिसाढ़ गांव। आस-पास के इलाकों में 62 और इस गांव में 13 लोगों की मौत हुई। सैकड़ों लोग घायल हुए। लेकिन 10 साल पहले खून, चीथड़ों और चीखों से दहला हुआ शहर अब धीरे-धीरे नॉर्मल होने लगा है। रौनकों में डूबने लगा है। एक रोज खून से सनी सड़कों पर अब गाड़ियां फर्राटे भरने लगी हैं। पर हादसे में अपनों को खो चुके परिवार अब भी साल 2013 के सितंबर में अटके हैं।
गांव में 7 सितंबर की शाम तक सब ठीक था। तभी कुछ लोग पंचायत से लौटे। हाथ में लाठी-डंडे और तलवारें थीं। उन्होंने मुसलमान घरों को चुन-चुनकर आग लगा दी। जो भाग सकते थे, वह घर छोड़कर भाग गए। लेकिन 13 लोग नहीं भाग पाए, वे सभी मारे गए। 11 लोगों की लाशें आज 10 साल बीत जाने के बाद भी नहीं मिलीं। जो 2 लाशें नहर में मिली, वे गांव से 30 किलोमीटर दूर मिलीं।
इस घटना के बाद कोई भी मुस्लिम परिवार वापस लिसाढ़ नहीं गया। सभी विस्थापित हो गए। इन सबका कोई कसूर नहीं था। फिर भी मुजफ्फरनगर दंगे की आग में झुलस गए। दंगे को आज 10 साल हो गए। कल हमने आपको मुजफ्फरनगर दंगे की शुरुआती कहानी बताई थी। आज हम दंगे और उसके बाद हुई बर्बादी की दास्तां जानेंगे…
बहू-बेटी बचाओ पंचायत में गए, वापस आए तो हाथ में लाठी-डंडे उठा लिए
27 अगस्त, 2013 को मुजफ्फरनगर के कवाल गांव में सचिन-गौरव और शाहनवाज की हत्या हुई। 28 अगस्त को सचिन-गौरव के अंतिम संस्कार से लौटी भीड़ ने कवाल गांव में मुस्लिमों के घरों में तोड़फोड़ की। 30 अगस्त को मुस्लिम पक्ष ने मुजफ्फरनगर शहर के शहीद चौक पर बड़ी सभा की। जमकर भड़काऊ बयानबाजी हुई। 31 अगस्त को जाटों ने पंचायत की। सरकार को अगले 7 दिन में आरोपियों की गिरफ्तारी और सचिन-गौरव के परिवार के लोगों पर लगे केस को हटाने का अल्टीमेटम दिया। केस नहीं हटा, तो 7 सितंबर को नगला मंदौड़ स्थित भारतीय किसान इंटर कॉलेज में बहू-बेटी बचाओ पंचायत का आयोजन हुआ।
इस महापंचायत में उस वक्त कैराना के बीजेपी विधायक हुकुम सिंह और बिजनौर विधायक भारतेंदु, बीजेपी नेता संगीत सोम, कांग्रेस नेता हरेंद्र मलिक, आरएलडी के राजपाल बाल्यान, किसान यूनियन की तरफ से राकेश टिकैत शामिल हुए। 20 हजार से ज्यादा लोग वहां मौजूद थे। लोग सिर्फ मुजफ्फरनगर के नहीं थे। पड़ोस के शामली, मेरठ और बागपत से भी लोग आए थे। पंचायत की शुरुआत सचिन-गौरव को श्रद्धांजलि देने के साथ हुई। उसके बाद मुस्लिमों के खिलाफ भड़काऊ बयानबाजी शुरू हो गई। पंचायत खत्म हुई, तो लोग नफरत से भरे दिखे।
महापंचायत से लौटते वक्त भीड़ का जौली नहर पर विवाद हो गया। विवाद हिंसा में बदल गया। स्थानीय भीड़ ने महापंचायत से लौटे किसानों पर हमला कर दिया। 18 ट्रैक्टर फूंक दिए। कई लोगों को मारा और उनकी लाश नहर में फेंक दी। यह देखकर महापंचायत की भीड़ उग्र हो गई। जिधर से भी गुजरी, आग लगाती चली गई। प्रशासन एक जगह मैनेज करता, दूसरी जगह हिंसा हो जाती। आसपास के जिलों से पुलिस बल मुजफ्फरनगर में लगा दिया गया।
हम अपने बीवी-बच्चों को लेकर भाग आए, जो बचे वो मारे गए
पंचायत स्थल नगला मंदौड़ से करीब 50 किलोमीटर दूर शामली जिले में लिसाढ़ गांव है। इस गांव के भी बड़ी संख्या में लोग पंचायत में पहुंचे थे। पंचायत में हिंसा की जानकारी गांव के मुस्लिमों को भी हुई। उन्हें कहीं से सूचना मिली कि गांव के लोग आते ही सब कुछ खत्म कर देंगे। गांव के ही रिजवान हमें बताते हैं, उस वक्त मैं करीब 15 साल का था। फोन आया, तो घरवाले हमें वहां से भाग जाने के लिए कहने लगे। मैं अपने बड़े भाई के साथ वहां से बाइक के जरिए निकल गया।
गांव में करीब 40 मुस्लिम घर थे। सभी अपने बीवी-बच्चों के साथ रात में ही भागने लगे। कोई खेत में छिपा, तो कोई कहीं दूसरी जगह भाग गया। गांव में सिर्फ 13 लोग बचे। सभी बुजुर्ग थे। उन्हें भरोसा था कि गांव के लोग उन्हें सालों से जानते हैं, उनके साथ बुरा नहीं करेंगे। लेकिन भीड़ आई और हर घर में आग लगाने लगी। सब कुछ जलकर राख हो गया। उन 13 लोगों का कुछ भी पता नहीं चला। दो दिन बाद दो लोगों की लाशें पुलिस को 35 किलोमीटर दूर बरौत नहर में मिली।
- लिसाढ़ गांव के अब सारे मुस्लिम परिवार कांधला में रहते हैं। हम यहां पहुंचे। उस वक्त के भयावह दृश्य को यहां के लोगों से जाना।
परिवार के 5 लोग मारे गए, किसी की लाश नहीं मिली
हम कांधला चौराहे से करीब 1 किलोमीटर दूर गए। वहां हमें हमजा कॉलोनी मिली। यहां सभी विस्थापित परिवार के लोग हैं। रास्ता नहीं बना है। लाइट भी सिर्फ दिन में ही आती है। हम अंदर पहुंचे तो हमें रिजवान मिले। रिजवान के परिवार के कुल पांच लोग उस दंगे में मारे गए। किसी की भी लाश नहीं मिली। रिजवान कहते हैं, हमारा परिवार लिसाढ़ गांव में बहुत पहले से रहता था। दादा तक को याद नहीं कि कब से यहां हैं? परिवार के लोग बुग्गी बनाने, ठेला बनाने का काम करते थे।
रिजवान आगे कहते हैं, "जब गांव में हिंसा फैली तो जो बचे 13 लोग थे वह गांव के ही एक मजबूत घर की छत पर चले गए। उन्हें यह था कि नीचे गेट बंद हो जाएगा तो कोई आ नहीं पाएगा। लेकिन ऐसा नहीं था। दंगा करने वाले वहां भी पहुंच गए। सबको मार दिया। किसी की भी लाश वहां नहीं छोड़ी। सबको उठा ले गए। 2 लोगों की लाश वहां से काफी दूर नहर में मिली। हमारे परिवार में हमारे दादा, दादा के भाई और उनकी पत्नी, एक ताई और बाबा की तो लाश भी नहीं मिली।"
दंगों की पीड़ित रही सलमा बताती हैं कि वो लोग मेरे सामने ही पति को पीटने लगे। उन्होंने हाथों में हथियार थे। उन्होंने तलवार उठाई और मेरे पति की गर्दन काट दी। हमारा बाकी परिवार वहां से भाग आया। 10 साल में मैं उस गांव कभी वापस नहीं गई, जहां मेरे पति की हत्या हुई थी।
लाश नहीं मिली, इसलिए नौकरी भी नहीं मिली
इस दंगे में जो भी मारे गए, सरकार ने उन सभी के परिवार के लोगों को 15 लाख रुपए और सरकारी नौकरी दी। हमने रिजवान से पूछा कि लाश तो मिली नहीं, क्या मुआवजा और नौकरी मिली? रिजवान बताते हैं, "लंबी लड़ाई के बाद 2016 में मुआवजा तो मिल गया, लेकिन सरकारी नौकरी आज तक नहीं मिली। किसी का मृत्यु प्रमाण पत्र भी आज तक नहीं बना।" रिजवान आगे कहते हैं कि मुआवजा तो यह मानकर ही दिया गया है कि सभी मारे गए, लेकिन नौकरी और मृत्यु प्रमाण पत्र पता नहीं क्यों नहीं दे रहे हैं?
इसी मोहल्ले में हमें कुछ और लोग मिले। 10 साल पहले के 7 सितंबर को आज भी नहीं भूले। वह बताते हैं कि उस वक्त खेतों में गन्ने बड़े-बड़े हो गए थे। पत्तियां चीर रही थी, फिर भी जान बचाने के लिए बच्चों को लेकर भाग रहे थे। बच्चे चिल्लाते तो उनके मुंह पर हाथ रख देते थे, ताकि कोई सुन न ले। जान बची तो दोबारा उस गांव नहीं गए। वहां जो जमीनें थी, बहुत कम दाम में बेच दी। सरकार की तरफ से हर परिवार को 5-5 लाख रुपए मुआवजा मिला। सभी ने उन पैसों से हमजा कॉलोनी में जमीनें खरीदी और जैसे-तैसे पैसे जोड़ जोड़कर घर बनाया।
- विस्थापितों से मिलने के बाद हम दंगों से जुड़ी और जानकारी के लिए वकील अकरम अख्तर चौधरी के पास पहुंचे। अकरम ने विस्थापितों को सरकार की तरफ से कई योजनाओं का लाभ दिलवाया।
दंगे की पटकथा दो महीने पहले से लिखी गई
2013 में जिस वक्त मुजफ्फरनगर-शामली में दंगा हो रहा था, उस वक्त अकरम अख्तर चौधरी वकालत की पढ़ाई कर रहे थे। वह कहते हैं, दंगा अचानक नहीं हुआ। जुलाई 2013 से ही यहां के माहौल में सांप्रदायिक गर्मी बढ़ने लगी थी। कवाल गांव की घटना ने इस सांप्रदायिक आग में घी का काम किया। शहरी इलाकों के मुकाबले गांव में हिंसा ज्यादा विकराल थी। शामली के बावड़ी, लांख और लिसाढ़ में तो हालात ये थे कि पूरा का पूरा गांव मुस्लिमों से खाली हो गया। सभी भागकर कांधला पहुंचे और फिर कभी वापस नहीं गए।
अकरम बताते हैं, "सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस दंगे में 50 हजार लोग विस्थापित हुए। मुजफ्फरनगर में 1010 लोगों को 5-5 लाख रुपए मुआवजा मिला। शामली में 778 परिवार ऐसे थे जो वापस नहीं लौटे और उन्हें सरकार ने 5-5 लाख रुपए दिए थे। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 62 लोग मारे गए, लेकिन यह संख्या 100 से अधिक है। क्योंकि सरकार ने इसमें उन्हें ही काउंट किया जो 27 अगस्त से 15 सितंबर के बीच मारे गए। लेकिन बहुत सारे ऐसे लोग थे, जो इस दौरान लापता हुए लेकिन उनकी लाश इसके बाद मिली। कुछ लोगों को बाद में नाम पूछकर खेतों में मार दिया।"
पुलिस की जांच पर सवाल उठाते हुए अकरम कहते हैं, दंगों की जांच में एक्सपर्ट ऑफिसर की जरूरत होती है। ऐसे अफसर, जो संवेदनशील हों। वह समझते हों कि किसी की दुनिया उजड़ी है, उसे कैसे बसाया जाए? कैसे न्याय के लिए प्रयास किया जाए? दंगा करने वालों को पकड़ा जाए। लेकिन यहां प्रशासन की कई गंभीर चूक नजर आती हैं। 510 मामले दर्ज हुए, लेकिन 175 मामलों में ही चार्जशीट फाइल हो सकी। 6 हजार लोगों को गिरफ्तार किया गया। 2500 को क्लीनचिट दे दी गई। मर्डर के 19 मामलों में आरोपी तय ही नहीं कर पाए। इन सबके अलावा पुलिस ने 18 अटेम्प्ट टू मर्डर का मामला दर्ज किया। लेकिन आरोप तय नहीं हुए।
फिलहाल दंगे की जांच के लिए कई टीमें बनीं। सचिन-गौरव के मामले में 6 आरोपियों को उम्रकैद की सजा हुई। इसके अलावा खतौली के बीजेपी विधायक विक्रम सैनी समेत 12 लोगों को दंगा भड़काने का जिम्मेदार मानते हुए कोर्ट ने 2-2 साल की सजा सुनाई। इससे विक्रम सैनी की विधायक सदस्यता चली गई। बीजेपी नेता सुरेश राणा और संगीत सोम को दंगे का आरोपी बनाया गया था। 2017 में दोनों चुनाव जीते लेकिन 2022 में हार गए। सरकार ने 2021 में इन दोनों नेताओं से दंगे से जुड़े केस वापस ले लिए थे।
आखिर में…मुजफ्फरनगर के दंगों ने सबसे ज्यादा चोट विश्वास पर की। 10 साल बीत गए, लेकिन आज भी लोग एक-दूसरे को शक की नजर से देखते हैं। नेता उस दिन को भूल जाने को कहते हैं, लेकिन वो लोग कैसे भूलें जिनकी दुनिया ही उस दंगे में उजड़ गई।
आखिर में उन चेहरों को देखिए, जिनके इर्द-गिर्द दंगे की कहानी घूमती है। कल हम आपको तीसरी कड़ी में दंगे के दौरान हुए रेप की कहानी बताएंगे।
मुजफ्फरनगर दंगा पार्ट 1 आप नीचे दिए लिंक पर पढ़ सकते हैं…
- बेटे की लाश पर कपड़े का टुकड़ा तक नहीं था
मुजफ्फरनगर का कवाल गांव। सचिन पूजा का सामान लेने बाजार गया। रास्ते में उसे छोटा भाई गौरव स्कूल से आते हुए दिखा। सचिन और गौरव साथ में घर जाने लगे। घर से करीब 1 किलोमीटर पहले गौरव की साइकिल शाहनवाज की बाइक से टकरा गई। शाहनवाज को गुस्सा आया। इधर सचिन और गौरव भी पीछे नहीं हटे। गाली-गलौज हुई। आस-पास के लोग इकट्ठा हुए तो मारपीट शुरू हो गई।
भीड़ से बचकर शाहनवाज वहां से निकला। पास में सैलून था। वो वहां से छूरा लेकर आया। सचिन ने शाहनवाज का हाथ मोड़ा और छूरा छीनकर उसे ही मार दिया। शाहनवाज गिरकर तड़पने लगा। आस-पास के लोगों ने खून देखा तो सचिन-गौरव को पीटने लगे। दोनों की मौके पर ही हत्या कर दी। सचिन और गौरव की खून से लथपथ लाश सड़क पर पड़ी थी। शरीर पर एक कपड़ा तक नहीं बचा था। कुछ देर बाद… शाहनवाज की भी हालत बिगड़ने लगी। उसने भी दम तोड़ दिया। पढ़िए पूरी कहानी…
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