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साहित्य और संस्कृति के मामले में हमेशा अगुवाई करने वाला यह जागृत प्रदेश हिंसा-प्रतिहिंसा के सिलसिले का शिकार बन गया है। ममता बनर्जी संवेदनशील राजनेता हैं। उनकी हुकूमत में भी संवेदना और सहिष्णुता के…
Pankaj Tomarशशि शेखरSat, 15 Jul 2023 08:19 PMऐप पर पढ़ें
बात 1970 के दशक की है। उत्तर प्रदेश में ब्लॉक प्रमुख पद हेतु चुनाव हुए। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक गांव के दो परिवार आमने-सामने थे। जो सज्जन हारे, वह अन्याय की गुहार लगाते हुए आज के प्रयागराज और तब के इलाहाबाद आ धमके। उन्हें हाईकोर्ट से अपने प्रतिद्वंद्वी के चुनाव को रद्द कराने की धुन सवार थी। इसके लिए वह बड़ी से बड़ी रकम खर्च करने को तैयार थे।
वकील साहिबान गंभीर मुद्रा में उनकी फाइल देखते और कहते कि चौधरी साहब, मुकदमा कमजोर है, पर दो ‘प्वॉइंट’ ऐसे हैं, जिनसे फैसला आपके पक्ष में हो सकता है। वे जो फीस बताते, वह मेरे जैसे किशोर के लिए कल्पनातीत होती। कई नामी-गिरामी वकीलों का चक्कर लगाने के बाद उन्होंने एक नहीं, दो बडे़ वकील चुने। सवाल मंूछ का था।
उनका मुकदमा चलता रहा और इस बीच दोनों पक्षों के नातेदारों में कई हिंसक झड़पें हुईं। हर बार एक नया मुकदमा दर्ज हो जाता और हर बार वह जिला मुख्यालय या इलाहाबाद की ओर रुख कर लेते। उनकी बातें सुनते हुए मुझे एक बात समझ में आ गई थी कि दोनों प्रतिद्वंद्वी परिवारों ने सीधे तौर पर कभी एक-दूसरे के ऊपर हमला नहीं किया। हमेशा उनके दूर के नातेदार या समर्थक भिड़ते थे। लगभग चार बरस बीतने के बाद फैसला आया और वह मुकदमा हार गए। तब से आज तक इस सवाल से जूझ रहा हूं कि ब्लॉक प्रमुख जैसे अदने चुनाव के लिए इतना धन और खून बहाने की क्या जरूरत थी?
पश्चिम बंगाल में पंचायत चुनावों के दौरान हुई हिंसा ने इस पुराने प्रश्न को फिर से जिंदा कर दिया है। गुजरे चार दशकों के दौरान हमारी चुनाव व्यवस्था में एक नया कारक जुड़ गया है। अब निर्वाचन सिर्फ मूंछ का मुद्दा नहीं रह गए हैं, इनके साथ पैसे की लिप्सा भी जुड़ गई है। भरोसा न हो, तो अपने विधान मंडलों में करोड़पतियों की तादाद गिन देखिए। आंखें फटी की फटी रह जाएंगी। चुनाव-दर-चुनाव यहां करोड़पतियों की तादाद बढ़ती जा रही है। खानदानी मुफलिसी धोने का इससे बेहतर तरीका और कोई नहीं हो सकता। राजीव गांधी ने जब पंचायत राज लागू किया था, तब किसी ने सोचा न था कि ये पंचायतें निजी विकास का जरिया बन जाएंगी। बंगाल के रक्तपात के लिए राजनीति के साथ अर्थनीति भी जिम्मेदार है।
हमारा लोकतंत्र अमृतकाल से गुजर रहा है, लेकिन हम इसके अमृत-तत्वों को कब अपना पाएंगे?
बंगाल में हिंसा नई नहीं है। वहां हर चुनाव रक्तरंजित होता है। हर बार आरोप लगता है कि यह राज्य पोषित हिंसा है। निर्वाचन आयोग ने गुजरे चार दशकों में चुनाव-दर-चुनाव अपनी व्यवस्था सुधारी है। इस बार भी पश्चिम बंगाल में बड़ी संख्या में केंद्रीय बल तैनात किए गए थे। इसके बावजूद 40 से अधिक लोगों को जान गंवानी पड़ी। 2019 के आम चुनाव वाले वर्ष में समूचे देश में 72 लोग मारे गए थे। अकेले बंगाल में इतनी अधिक मौतें डराती हैं। पड़ोस के उत्तर-पूर्वी प्रदेश और झारखंड भी इस मामले में कम कुख्यात नहीं हैं। जान गंवाने वाले सारे पुरुष थे और इस नाते अपने परिवारों के पोषण की जिम्मेदारी उन पर थी। मौत खुद उन तक चलकर नहीं आई थी, बल्कि वे स्वयं उस तक पहुंचे थे।
सवाल उठता है, इस खूंरेजी के लिए कौन जिम्मेदार है?
जवाब के लिए आपको उत्तर प्रदेश में सन 1974 में हुए विधानसभा चुनाव की आंखों देखी बताता हूं। एक महिला उम्मीदवार कांगे्रस की ओर से दावेदार थी। जिस सीट से वह लड़ रही थी, वहां का दस्तूर था कि विपक्षी दल से जुड़ी जातियों के लोगों के वोट ‘रोके’ बिना कोई जीत नहीं सकता था। चुनाव से चार दिन पहले प्रत्याशी की पैतृक हवेली में उसकी जाति से जुड़े बाहुबलियों की बैठक हुई। महिला के देवर ने उनके समक्ष त्रिस्तरीय एक रणनीति प्रस्तुत की। पहली, जहां-जहां हमारी जाति का बाहुल्य है, वहां हम कैसे विपक्षियों के समर्थकों को वोट डालने से रोकेंगे? दूसरी, जिन गांवों में दूसरे दल वालों की अधिक आबादी है, वहां हम अपने पक्ष के लोगों को वोट डलवाने के लिए क्या करेंगे? तीसरी, अपरिहार्य हिंसा की स्थिति में किस तरह आस-पास बाहुबली मदद के लिए पहुंचेंगे? गरमागरम बहस जारी थी कि अचानक महिला प्रत्याशी ने मासूम-सा सवाल पूछा कि आप लोग गोली चलने की बात कर रहे हैं। इससे क्या कोई मर सकता है? एक उत्साही नौजवान का जोश भरा जवाब था कि बंदूकें आग उगलती हैं, दूध नहीं। जो सामने पड़ेगा, वह मरेगा!
इस उत्तर को सुनकर वह महिला तमतमाती हुई खड़ी हो गई। उसने जो कहा, उसे इतिहास भले ही दर्ज न करे, पर वहां बैठे लोगों के सिर जरूर झुक गए थे। महिला प्रत्याशी का कहना था कि आप लोग जिस हिंसा की बात कर रहे हैं, इसमें सिर्फ पुरुष मरेंगे। मरकर वे स्वर्ग जाएंगे या नरक मुझे मालूम नहीं, पर एक स्त्री होने के नाते मैं अवश्य जानती हूं कि उनकी पत्नियां हर रोज नरक भोगेंगी। मैं आपको इसकी इजाजत नहीं दूंगी। इसके बावजूद यदि किसी ने हिमाकत की, तो मैं खुद पुलिस कप्तान के पास उसकी शिकायत लेकर जाऊंगी।
बताने की जरूरत नहीं कि वह चुनाव हार गई और साथ ही उसकी राजनीति भी खत्म हो गई। बिहार और उत्तर प्रदेश कभी ऐसे जानलेवा संघर्षों के लिए अभिशप्त होते थे। वहां काफी सुधार हुआ है। चुनाव आयोग के इंतजामात अगर यहां कारगर साबित हुए हैं, तो वे बंगाल में हर बार असफल क्यों रहते हैं?
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी महिला हैं। वह 12 बरसों से मुख्यमंत्री हैं। यह ठीक है कि चुनावी हिंसा को रोकने का काम चुनाव आयोग का है, पर चुनाव से पहले और बाद में हो रही खंूरेजी पर नियंत्रण की जिम्मेदारी सूबाई हुकूमत की है। पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनावों के बाद से सियासी रंजिश का खुला प्रदर्शन हो रहा है। पंचायत के चुनाव उसकी अगली कड़ी भर हैं। कुछ जानकार इसे लोकसभा चुनावों की प्रस्तावना मानते हैं। साहित्य और संस्कृति के मामले में हमेशा अगुवाई करने वाला यह जागृत प्रदेश हिंसा-प्रतिहिंसा के सिलसिले का शिकार बन गया है। ममता बनर्जी संवेदनशील राजनेता हैं। उनकी हुकूमत में भी संवेदना और सहिष्णुता के दर्शन होने चाहिए।
ऐसा नहीं है कि सवालों के घेरे में वह अकेली हैं। समूची सियासी बिरादरी जब तक खुद रचे गए इस कुचक्र को नहीं तोड़ेगी, तब तक चुनाव अपने मतदाताओं के रक्त से स्नान को अभिशप्त रहेंगे।
Twitter Handle: @shekharkahin
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