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हिंदी न्यूज़ ओपिनियनसबसे अच्छे दौर में भारत-अमेरिका संबंध सबसे अच्छे दौर में भारत-अमेरिका संबंध
आज से पंद्रह साल पहले भारत और अमेरिका ने असैन्य परमाणु समझौते को अंतिम रूप दिया था। यह समझौता सिर्फ परमाणु ऊर्जा के बारे में नहीं था, बल्कि यह द्विपक्षीय रिश्तों की एक बड़ी बाधा को दूर करने और…
Amitesh Pandeyप्रशांत झा, हिन्दुस्तान टाइम्स संवाददाता, अमेरिकाThu, 08 Jun 2023 10:42 PMऐप पर पढ़ें
आज से पंद्रह साल पहले भारत और अमेरिका ने असैन्य परमाणु समझौते को अंतिम रूप दिया था। यह समझौता सिर्फ परमाणु ऊर्जा के बारे में नहीं था, बल्कि यह द्विपक्षीय रिश्तों की एक बड़ी बाधा को दूर करने और संभावित चीनी आक्रामकता के मद्देनजर नई दिल्ली व वाशिंगटन को रणनीतिक रूप से एक-दूसरे के करीब लाने के लिए था। तब से रक्षा, सुरक्षा और खुफिया सूचनाओं की साझेदारी समेत तमाम क्षेत्रों में दोनों देशों के रिश्ते लगातार मजबूत हो रहे हैं। जिस बात ने जॉर्ज डब्ल्यू बुश को इस कूटनीतिक पूंजी निवेश की खातिर और मनमोहन सिंह को अपनी सरकार तक को दांव पर लगाने के लिए प्रेरित किया, वह अब अपने तार्किक निष्कर्ष पर पहुंच रहा है, और यह 2008 के बरक्स दो अलग-अलग पार्टियों की दो अलग सियासी हस्तियों, जो बाइडन और नरेंद्र मोदी के शासन में हो रहा है। तीन कारक इस बदलाव को मुमकिन बना रहे हैं।
पहला कारक है राजनीतिक स्पष्टता और प्रतिबद्धता। राष्ट्रपति बाइडन ने यह राजनीतिक नजरिया अपनाया है कि भारत एक अहम खिलाड़ी है और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिकी नीति के लिहाज से नई दिल्ली के साथ संबंधों में सुधार बहुत जरूरी है। ठीक है, भारत सहयोगी न बने; पर एक साझेदार के रूप में वह शायद कहीं अधिक प्रभावी हो सकता है। बाइडन प्रशासन ने तय किया है कि वह भारतीय लोकतंत्र के आलोचकों को अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा के रुख को परिभाषित करने नहीं देगा। राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद से लेकर विदेश विभाग और पेंटागन तक के अधिकारियों का कहना कि उन्हें ऊपर से स्पष्ट निर्देश है- भारत के साथ कारगर रिश्ते बनाएं, वरना एक नीति-नियंता के शब्दों में, ‘हमारे पोते-पोतियों पर चीनियों का राज होगा।’ विरोधाभासी रूप से यूक्रेन मसले पर दोनों देशों के बीच के मतभेद ने इस सोच को और पुख्ता ही किया है, क्योंकि वाशिंगटन ने यह महसूस किया है कि शीतयुद्ध के दौरान की उसकी गलत नीतियों ने दशकों तक भारत को रूस के करीब जाने को बाध्य किया।
ऐसे में, द्विपक्षीय सहयोग को गहरा करके और खेल के नए नियम निर्धारित कर पुरानी गलतियों को दुरुस्त करने का यही क्षण था। राष्ट्रपति बाइडन ने नई दिल्ली पर एक मित्र के तौर पर व्यवस्थित रूप से दीर्घ अवधि के लिए दांव लगाया। प्रवासी भारतीयों का बढ़ता रुतबा भी इसमें मददगार साबित हुआ है। तथ्य यही है कि अमेरिकी राजनीति में भारत कोई बोझ नहीं है, बल्कि दोनों मुख्य पार्टियों के लिए अहमियत रखता है।
जहां तक भारतीय पक्ष का सवाल है, तो शी जिनपिंग ने अपने कदमों से उसके लिए निर्णय करना आसान कर दिया। साल 2014 में चुमार में घुसपैठ, 2016 में परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह में भारत के लिए बाधा पैदा कर, 2017 में डोकलाम और 2020 में पूर्वी लद्दाख में शी जिनपिंग की कार्रवाइयों ने यह तय कर दिया कि भारत का प्रमुख भू-राजनीतिक विरोध चीन के साथ ही है, और नई दिल्ली अब इस बात को बहुत छिपा नहीं सकती थी। फिर भारत को अपनी क्षमताओं के विस्तार, चीन के साथ अपने अंतर को पाटने के लिए; सुरक्षा खतरों के प्रबंधन में अमेरिकी पूंजी, प्रौद्योगिकी, खुफिया व राजनयिक समर्थन जरूरी है। इसलिए प्रधानमंत्री मोदी ने मौजूदा व भविष्य के भागीदार के रूप में वाशिंगटन पर दांव लगाया है। भारतीय राजनीति में भी अमेरिका अब कोई बोझ नहीं है।
दूसरा कारक है, कूटनीतिक जुड़ाव का पैमाना। सिर्फ 2023 में भारत व अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, अजीत डोभाल और जेक सुलिवन वाशिंगटन व रियाद में मिले हैं। भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर और अमेरिकी विदेश मंत्री एंटोनी ब्लिंकन की अक्सर बातचीत होती है और वे नई दिल्ली व हिरोशिमा में मिल चुके हैं। हाल ही में वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल व्यापार वार्ता के लिए वाशिंगटन आए थे, उनकी अमेरिकी समकक्ष जीना रायमोंडो भी नई दिल्ली का दौरा कर चुकी हैं। भारतीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण और अमेरिकी ट्रेजरी सचिव जेनेट येलेन इस साल अब तक दो बार मिल चुकी हैं। इसी हफ्ते अमेरिकी रक्षा मंत्री ने अपना भारत दौरा पूरा किया है। दोनों देशों के जुड़ाव का यह पैमाना उन लोगों के अनुमान से कहीं अधिक गहरे बदलाव की ओर ले जाता है, जो सरकार के बाहर रहकर इसे देखने की कोशिश कर रहे हैं।
तीसरा कारक है साझा एजेंडा। क्रिटिकल ऐंड इमर्जिर्ंग टेक्नोलॉजीज यानी आईसीईटी के क्षेत्र में पहल दोनों देशों की रणनीतिक साझेदारी में अगला कदम है। इसी ने परमाणु समझौते का मार्ग प्रशस्त किया था। आईसीईटी भारत-अमेरिकी संबंधों को परिभाषित करने वाला ढांचा होगा। अमेरिकी रक्षा मंत्री ऑस्टिन की यात्रा ने आईसीईटी में निहित रक्षा औद्योगिक रोडमैप के विचार को आगे बढ़ाया है। दरअसल, भारत अपना सैन्य औद्योगिक परिसर विकसित करना चाहता है। उसका यह सपना अमेरिकी पूंजी और तकनीकी हस्तांतरण पर टिका है; तो वहीं भारत को अपने व्यापक रक्षा ढांचे से जोड़ने का अमेरिका का सपना भी तभी साकार होगा, जब वह निर्यात पर नियंत्रण में लचीलेपन और भारत में निवेश करने के लिए अपने निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित करने की ओर बढ़ेगा। दोनों देश अपने ‘डिफेंस इनोवेशन इकोसिस्टम’ को जोड़ने जा रहे हैं और स्टार्टअप को बढ़ावा देने के लिए एक कोष स्थापित करने वाले हैं।
भारत व अमेरिका के कूटनीतिक इतिहास में पहली बार एशिया भर में उनके हितों में एकरूपता दिख रही है। दोनों देश इजरायल की एकता और अब्राहम समझौते की सफलता चाहते हैं। दोनों सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात में जारी बदलावों के महत्व को पहचानते हैं। दोनों एक स्थिर ऊर्जा बाजार चाहते हैं।
भारत के बिना हिंद-प्रशांत और क्वाड बेमानी हैं। सार्वजनिक बयान भले अलग-अलग हों, पर न तो नई दिल्ली और न ही वाशिंगटन एक ऐसा एशिया चाहता है, जिसमें चीन मनमानी करे। संकट के वक्त इन दोनों देशों की प्रतिक्रिया क्या होगी, यह इनके रिश्ते को आंकने का शायद सटीक पैमाना नहीं है; तथ्य यह है कि भारत और अमेरिका परेशानी के स्रोत पर सहमत हैं और उस चुनौती से निपटने के लिए वे किस हद तक सहयोग करेंगे, इसकी दूरियां पाट रहे हैं, यही अपने आप में उल्लेखनीय प्रगति है। जिस तरह वाशिंगटन मोदी की यात्रा की तैयारी में जुटा है, उसे देखते हुए कह सकते हैं कि भारत-अमेरिका संबंध अपने अब तक के सबसे अच्छे दौर में प्रवेश करने जा रहा है।
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